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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

अपराध बोध: न्याय कर पा रहे हैं?

ये मेरा नितान्त निजी विचार है और इसी लिए ये मेरी सोच पर ही लिख रही हूँ। ब्लॉग का निर्माण , उस पर लिखना और साझा ब्लॉग में सम्मिलित हो जाना हमारे लिए एक आम बात है और शुरू में जब इसकी जिम्मेदारियों से भिज्ञ न थी और साझा ब्लॉग की उपयोगिता और उसके स्वरूप से प्रभावित हुई और मैंने भी कई ब्लॉग में साझीदारी स्वीकार कर ली।
मेरे द्वारा अपनाये गए सभी ब्लॉग कभी महत्वपूर्ण भूमिका रहे हैं ब्लॉग जगत में। लेकिन मैं एक अपराध बोध से ग्रस्त हूँ कि मेरे डैशबोर्ड में मेरी द्वारा अनुसरित किये गए ब्लोगों लम्बी फेहरिस्त है। मैंने हर एक पर जाना चाहती हूँ लेकिन चाह कर भी सब पर न तो पढ़ने ही पहुँच पाती हूँ और न ही लिखने के लिए। रोज न सही अगर मैं सप्ताह में एक बार भी वहाँ लिख पाऊं तो शायद ये अपराध बोध मुझे परेशान न करे। अपने ब्लॉग पर हफ्तों न लिख पाऊं मेरी आत्मा इतना नहीं कचोटती है जितना कि मैं अपने द्वारा अनुसरित ब्लॉग पर कुछ न कर पाने के लिए परेशान रहती हूँ।
मैं जितना पहले इस पर सक्रिय रह पाती थी अब नहीं रह पाती हूँ। सोचती हूँ कि कहीं इतने सारे ब्लोग्स को मैं धोखा तो नहीं दे रही हूँ कि सबको अपनाकर भी मैं उन्हें अपना अपनत्व नहीं दे पाती हूँ। जब कहीं जाकर अपनत्व देने कि कोशिश करती हूँ तो एक मेहमान की तरह से ।
मैं sajha blog ko ek परिवार कि tarah se hi samajhti हूँ, भले ही हम व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे से परिचित न हों फिर भी जब परिवार के सदस्य कुछ अभिव्यक्त करें तो हमको उससे जुड़ना तो चाहिए ही भले ही हम उसको अपनत्व देने में देर करें लेकिन ये हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति अपने को जुडाव रखें। उनके लिखे हुए को पढ़ें और उसका मूल्याङ्कन करके उनको प्रोत्साहित भी करें। ऐसा न कर सकें तो कम से कम वहाँ तक जाकर उसकी अद्यतन गनअतिविधियों से तो अवगत होना ही चाहिए।
मेरा ये अपराध बोध मुझे दबाये जा रहा है। आप सबसे अनुरोध है कि मुझे इस विषय में अपनी राय दें कि क्या मेरा सोचना और ये अपराध बोध उचित है या नहीं।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

ऐसा क्यों?

              भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बेटी विदा होकर पति के घर ही जाती है. उसके माँ बाप उसके लालन पालन शिक्षा दीक्षा में उतना ही खर्च करते हैं जितने की लड़के की शिक्षा में , चाहे वह उनका अपना बेटा हो या फिर उनका दामाद . शादी के बाद बेटी परायी हो जाती हैं - ये हमारी मानसिक अवधारणा है और बहू हमारी हो जाती है. हमारी आर्थिक  सोच भी यही रहती है कि कमाने वाली बहू आएगी तो घर में दोहरी कमाई आएगी और उनका जीवन स्तर अच्छा रहेगा. होना भी ऐसा ही चाहिए और शायद माँ बाप आज कल बेटी को  इसी लिए उनके आत्मनिर्भर होने वाली शिक्षा दिलाने का प्रयास करते हैं. वे अपनी बेटी से कोई आशा भी नहीं करते हैं. लेकिन कभी कभी किसी का कोई व्यंग्य सोचने पर मजबूर कर देता है.
          "तुम्हारे बेटा तो कोई है नहीं तो क्या बेटी के घर कि रोटियां तोडोगी? " 
          "तुमने जीवन में कुछ सोचा ही नहीं, सारा कुछ घर के लिए लुटा दिया , अब बुढ़ापे में कौन से तुमको पेंशन मिलनी है कि गुजारा कर लोगे." 
         "मैं तो सोचता हूँ कि ऐसे लोगों का क्या होगा, जीवन भर भाग भाग कर कमाया और बेटी को पढ़ा तो दिया अब कहाँ से शादी करेगा और  कैसे कटेगा इनका बुढ़ापा. "
            बहुत सारे प्रश्न उठा करते हैं, जब चार लोग बैठ कर सामाजिकता पर बात करते हैं. ऐसे ही मेरी एक पुरानी कहानी कि पात्र मेहनतकश माँ बाप की बेटी थी और माँ बाप का ये व्यंग्य कि कौन सा मेरे बेटा बैठा है जो मुझे कमाई खिलायेगा. 
उसने अपनी शादी के प्रस्ताव लाने वालों से पहला सवाल यह किया कि मेरी शादी के बाद मैं अपनी कमाई से इतना पैसा कि मेरे माँ बाप आराम से रह सकें इनको दूँगी. 
          लड़के वालों के लिए ये एक अजीब सा प्रश्न होता और वे उसके निर्णय से सहमत नहीं होते क्योंकि शादी के बाद उसकी पूरी कमाई के हक़दार वे ही होते हैं न. 
           एक सवाल सभी लोगों से यह पूछती हूँ कि अगर माँ बाप ने अपनी बेटी को इस काबिल बना दिया है कि वह कमा कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके तो फिर शादी के बाद वह अपने माँ बाप का भरण पोषण का अधिकार क्यों नहीं रखती है? ऐसे मामले में ससुराल वालों को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए. जिस शिक्षा के बल पर वह आत्मनिर्भर है वह उसके माता पिता ने ही दिलाई है न. फिर उनके आर्थिक रूप से कमजोर होने पर वह अपनी कमाई का हिस्सा माता पिता को क्यों नहीं दे सकती है? बेटे को आपने पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका पूरा पूरा हक़ है और उन्होंने बेटी को पढ़ाया तो उसकी कमाई पर भी आपका ही पूरा पूरा हक़ है. आखिर क्यों? हम अपनी इस मानसिकता से कब मुक्त हो सकेंगे कि बेटी विवाह तक ही माता पिता की देखभाल कर सकती है और उसके बाद वह पराई हो जाती है.

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

खाकी क्या संवेदनाएं हर लेती है?

             
           पुलिस (खाकी) की छवि पूरे देश में कैसी भी हो? लेकिन यहाँ उ. प्र. में कानपुर की खाकी के किस्से से वाकिफ हूँ और उनको सुनकर तो लगता है कि इस वर्दी के पहनते ही चाहे वह पुरुष हो या फिर नारी - उसकी संवेदनाएं शून्य हो जाती है. इसकी तस्वीर रोज ही अखबार में किसी न किसी मामले में देखने को मिलती रहती है. लेकिन कोई नारी इतनी संवेदनहीन हो ऐसा सोच कर कुछ बुरा लगता है.
                कल कानपुर में बहन जी का आगमन निश्चित था , इस लिए कुछ दिन पहले कानपुर में एक प्रतिष्ठित नर्सिंग होम के आई सी यू में हुए बलात्कार के बाद मौत की शिकार किशोरी 'कविता' के माँ बाप उन्नाव से अपनी बेटी के लिए न्याय की गुहार लगाने के लिए कानपुर आये थे. हमारी पुलिस कुछ अधिक ही सतर्क है (ये सतर्कता अगर सामने वारदात होती रहे तब भी नहीं होती है, जितनी कि किसी नेता के आने पर आ जाती है.)  कानपुर की महिला पुलिस ने उस युवती की माँ को मुँह दबा कर वैन में डालकर थाने में बिठाये रखा और उस पर भी - 'कविता अब मर चुकी है, ज्यादा नौटंकी करोगी तो गंभीर परिणाम भुगतने होंगे.' जैसी धमकियां भी मिलती रहीं. उनको तब छोड़ा गया जब बहन जी कानपुर से रवाना गो गयीं.
              जिसकी बेटी गयी और उसको ही प्रताड़ना. क्या दरोगा साहिबा की बेटी के साथ ऐसा ही हादसा हुआ होता तो वह ऐसे शब्द खुद के लिए सोच सकती थीं. चंद  दबंगों के इशारे पर और अपनी नौकरी बचाने के लिए खाकी क्या नहीं कर गुजराती  है? इसकी मिसाल  इस कानपुर शहर में ही रोज ही मिलती रहती हैं. सिर्फ पैसे वालों के लिए मामले की धाराएँ इतनी तेजी से बदली जाती हैं कि उनके छूट  जाने के सारे रास्ते खुल जाएँ. जो मरा है वह तो चला ही गया , इन जिन्दा हैवानों से उनकी जेब गरम होती रहेगी और फिर वक्त पर मुफ्त सेवा भी मिलती रहेगी. क्या ये खाकी सिर्फ पैसे वालों के हाथ की कठपुतली है - जो मानव, मानवता और नैतिक मूल्यों से रहित रोबोट की तरह से सिर्फ आदेश का पालन करती है. इसका न्याय और कानून से कोई वास्ता नहीं होता , अगर वास्ता होता तो रोज ऐसे वाकये न सामने आते .


मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

दूसरा विवाह !

                              

                                विवाह को हम चाहे एक संस्कार समझें या फिर जीवन की जरूरत , इसके साथ बहुत सारी जिम्मेदारियां और कर्त्तव्य जुड़े होते हैं. इससे बनती है नए रिश्ते की बुनियाद. कुछ नए लोगों से नए रिश्तों का निर्माण सामाजिक दायरे को बढ़ाता है तो साथ ही उनके प्रति न्याय की भी अपेक्षा जुड़ जाती है. विवाह मात्र घर में एक नए सदस्य को लाना नहीं है बल्कि उसके परिवार को भी अपने साथ जोड़ने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है. 
                                 प्रथम विवाह तो जीवन की एक सुखद घटना के रूप में ली जाती है लेकिन दूसरा विवाह किसी दुखद परिणति के बाद ही संभव होता है और प्रथम से दूसरे विवाह की राह बहुत ही कठिन होती है. सिर्फ पति के लिए ही नहीं पत्नी के लिए भी. इस लिए दूसरे विवाह के निर्णय लेने से पहले शारीरिक कम बल्कि मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लेना चाहिए. ये सिर्फ एक पक्ष के लिए नहीं है बल्कि दोनों ही पक्षों के लिए ये एक अत्यंत आवश्यक है. इसके लिए मानसिक परिपक्वता भी उतनी ही जरूरी है जितनी की नए जीवन में प्रवेश को लेकर अपेक्षाएं. अपेक्षाएं कभी भी अकेली नहीं होती बल्कि यदि आप किसी से अपेक्षा रखते हैं तो वह भी जरूर आपसे कुछ अपेक्षाएं रखता होगा. 
                              दूसरा विवाह अभी पुरुष के लिए अधिक आसान है , यद्यपि अब स्त्री का भी कुछ परिस्थितियों में दूसरा विवाह समाज ने स्वीकार कर लिया है. यहाँ एक बात बताते चले की ये सारी मान्यताएं और नियमावली सिर्फ मध्यम वर्ग के लिए होती हैं. अति उच्च  वर्ग के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है. एक दो तीन या चार विवाह करना और तोड़ देना कोई नई बात नहीं है. दूसरे विवाह की स्थिति या तो पत्नी की मृत्यु के बाद या फिर तलाक के बाद ही आती है. दोनों ही पक्ष इसके लिए अपने मन से तैयार होने में सशंकित रहते हैं. अगर तलाक का मामला है तो पुरुष एवं स्त्री दोनों से विवाह से पूर्व सशंकित रहते हैं कि  पता नहीं इसमें किसकी गलती होगी?  पुरुष इस बात से डरा होता है कि  अगर वह खुद बेकुसूर हैं तो कहीं दूसरी पत्नी भी पहली की भांति न निकले. स्त्री को ये पता नहीं होता कि  इस तलाक में दोषी कौन होगा? क्योंकि कोई भी स्वयं को दोषी कभी भी नहीं बताता है. तलाक का कारण कहीं लड़के के घर वाले न हों, खुद लड़का न हो, उसका आचरण न हो, ऐसे कितने सवालों से लड़की विवाह पूर्व घिरी रहती है. 
                          पत्नी की मृत्यु के बाद भी ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक होता है कि  वह अपनी मौत मरी है या फिर उसको मार दिया गया है. मेरे बचपन में ऐसे ही एक परिवार में बड़े बेटे की तीन बहुएँ एक एक कर जल कर मर गयीं और फिर उसका चौथा विवाह कर दिया गया. जब कि  इसमें सबको मालूम था कि  उस घर के लोगों ने दहेज़ के लिए बहुओं को जलाया है. फिर भी पता नहीं कैसे माँ बाप अपनी बेटी को उस भट्टी में झोंकने के लिए तैयार हो जाते थे. पत्नी की मृत्यु का कारण कुछ भी हो सकता है. लेकिन आने वाली लड़की के मन में इसको लेकर भी संशय पलता रहता है. अगर वह उस घर और घर वालों से परिचित है तब की बात और है. 
                         मेरी एक चाची दूसरे बच्चे के जन्म के समय चल बसीं. उनके पहले से एक बेटी भी थी. अब समस्या उन बच्चों को सभालने की थी. चाचा दूसरी शादी के लिए तैयार नहीं थे. उनको समझाया गया कि  दो बेटियों को किसके सहारे छोड़ सकते हैं. वे एक एक विशेष क्षेत्र में वैज्ञानिक थे. लड़कियों के प्रस्ताव आने शुरू हो गए. दूसरी चाची उतनी खूबसूरत न थी, जितनी कि  पहली वाली थी. दोनों ही शादियाँ मेरे सामने हुईं. चाचा ने दूसरी चाची को अपनी बेटियों के सामने ये कह कर अपमानित करना शुरू कर दिया की मुझे तो शादी की जरूरत ही नहीं थी, घर वाले नहीं माने इसलिए की है. उस लड़की की भावनाओं पर होने वाले आघात को मैंने महसूस किया. उनकी पोस्टिंग नैनीताल में थी. जब भी चाची उनसे कहें कि  चलिए कहीं घूमने चले तो ' मैं मधु के साथ सब कुछ घूम चुका हूँ, तुम्हें जाना हो तो बच्चों को लेकर चली जाओ.' उस लड़की के लिए ये कितना कष्टकारी कथन लगता होगा. आपकी दूसरी शादी है लेकिन उस लड़की की तो पहली ही शादी है और उसके सारे अरमान आपके साथ जुड़े हुए हैं. वह अपने अरमान किसी और के साथ या बच्चों के साथ पूरे नहीं कर सकती है. ये मेरे जीवन में अपने ही घर में होने वाली घटना थी, जिसको बहुत सालों तक दिमाग में रखने के बाद लिख पा रही हूँ. ऐसे कदम उठाने से पहले अपने आपको मानसिक तौर पर तैयार कर लीजिये कि  क्या आप उस आने वाले के साथ न्याय कर पायेंगे? अगर हाँ तब ही दूसरी शादी कीजिये अन्यथा आप अकेले जी सकते हैं तो दूसरे को व्यथित करने के लिए अपने जीवन में मत लाइए. घर वालों का दबाव मत मानिये. 
                  ऐसा सिर्फ स्त्री के साथ होता हो ऐसा नहीं है, पुरुष के साथ भी ऐसा ही हो सकता है. अपने नन्हे नन्हे बच्चों के सर पर माँ का साया लाने के लिए वह शादी कर लेता है और बदले में उसको क्या मिलता है?  उसकी दूसरी पत्नी बच्चों को फूटी आँखों नहीं देख पाती है, वह उन्हें सौत के बच्चे समझ कर दुर्व्यवहार करती है या फिर आपको भी उनके खिलाफ भड़कती रहती है. फिर आप की सोच समझ अपनी पत्नी के अनुसार चलने लगती है और बच्चे न माँ के रहते हैं और न ही पिता के. एक कहावत है माँ दूसरी हो तो पिता तीसरा हो जाता है. यहाँ भी पुरुष के लिए ये सलाह है की अपने विवेक के साथ समझौता कीजिये. पत्नी की बात का मान रखिये लेकिन बच्चों के साथ अन्याय करके नहीं. दोनों के प्रति अपने दायित्वों को बराबर महत्व दीजिये. किसी के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए. दोनों तरफ से उपेक्षित बच्चे गलत रास्ते पर भी जा सकते हैं. वे अपराध की दिशा में भटक सकते हैं. 
                  अगर आप स्त्री हैं तो दूसरे विवाह के बाद की स्थितियों पर विचार करने के बाद ही अपनी स्वीकृति देना चाहिए. आप पर कुछ अतिरिक्त दायित्व भी आने वाले हैं मानसिक तौर पर हमेशा ये बात याद रहनी चाहिए. उसके प्रति न्याय करना ही आपका दायित्व है. इसमें पहली पत्नी से प्राप्त बच्चे, उसके मायके वालों के प्रति आपके दायित्व भी बनते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी खोयी है तो उसके बच्चों में उनका अंश है , उनकी बेटी की निशानी है तो कोशिश ये होनी चाहिए कि  आप भी उनकी खोयी हुई बेटी की जगह पूरी करने की कोशिश करें. बहुत और दोहरा प्यार पाएंगी. जितना प्यार आप देंगी उतना ही प्यार आप पाएंगी भी . 
                  मेरी एक सहकर्मी हैं, बहुत साल तक हम साथ रहे लेकिन कभी ये पता नहीं चला कि  उनका बड़ा बेटा पहली शादी का है, कभी भी उनके मुँह से उसके बारे में गलत नहीं सुना और वे दोनों ही मायके को इतनी खूबसूरती से लेकर चली कि  मुझे उस महिला पर फख्र है. जिसने बच्चों को ही नहीं बल्कि दो माँओं , दो परिवारों के भाइयों और बहनों को बराबर से मान दिया और प्यार दिया. उनके साथ वर्षों काम करने बाद भी कभी उनको अपने और बड़े बेटे के बीच में फर्क करते नहीं देखा बल्कि बड़े बेटे के बाहर पढ़ने जाने पर बहुत बीमार हो गयी कि मेरा बेटा बाहर चला गया. अपने बड़े बेटे की शादी में उन्होंने हमसे अपनी दोनों ही माँओं का परिचय करवाया. बहुत अच्छा लगा. 
                 इस विषय को उठाने का मेरा मंतव्य सिर्फ ये है कि दूसरा विवाह आसान तो है लेकिन उससे जुड़े दायित्वों और अधिकारों दोनों को ही सहर्ष स्वीकार करने कि क्षमता होनी चाहिए तभी आप अपने रिश्तों के साथ न्याय  कर पायेंगे. चाहे आप पुरुष हों या फिर स्त्री इस निर्णय में बहुत ही समझदारी  कि जरूरत है.